हमारे शास्त्रों ने विद्यादान को महादान की श्रेणी में रखा है I सही भी  है, किन्तु यदि आधुनिक युग के परिपेक्ष्य में दृष्टिपात करें तो कदाचित इस बात पर बहुमत सहमत होगा  कि विद्यादान के साथ साथ यदि इसमें नेत्रदान को भी जोड़ दिया जाये तो कोई अतिशयोक्ति न होगी I  मेरा तात्पर्य यहाँ शास्त्रों को गलत सिद्ध करने से नहीं है I  उस समय शायद विज्ञानं का स्तर इतना ऊँचा था कि आम व्यक्ति को नेत्र दान की आवशयकता  ही नहीं थी I  इसका पुष्ट प्रमाण है कि भगवन कृष्ण ने पहले संजय को दिव्य दृष्टि दी और फिर अर्जुन को I  वे तो भगवन के अपने थे इसलिए यदि कहीं आई बैंक  होगा भी तो उन्हें प्राथमिकता के आधार पर नेत्र मिल गए होंगे, किन्तु  मेरे देश के उन लाखों करोड़ों लोगो का क्या जो फूलों कि सुगंध तो ले सकते है उनकी कोमल छुवन को अनुभव कर सकते हैं परन्तु उसकी सुन्दरता को निहार नहीं सकते ?  उनका क्या कि जब वसंत अपने यौवन पर होता है, झर झर झरने बहते हैं ,गगनचुम्बी पर्वतशिखर हिमाच्छादित होते है ,समुद्र की लहरें अपने तटों के साथ  अठखेलियाँ करती हैं  ,प्रकृति सोलह श्रृंगार करती है  ये सब बातें वे सुन तो सकते है परन्तु देख नहीं सकते   क्या एक उत्तरदायी नागरिक होने के नाते इस और  हमारा कोई कर्तव्य   नहीं ? अवश्य है  और इसका सबसे अच्छा उपाय है नेत्रदान I



आज हमारे समाज इस विषय में बहुत सी भ्रांतियां हैं कि नेत्रदान करना चाहिए अथवा नहीं I  आज जब विज्ञानं ने लगभग सारे कृत्रिम अंगो  का निर्माण कर लिया है तब केवल कुछ अंग ऐसे हैं जिनका निर्माण विज्ञानं नहीं कर पाया और उनमे से एक है हमारे नेत्र I  इसका केवल एक ही उपाय है ---नेत्रदान I  मैं समझता हूँ कि यदि हम नेत्रदान करते हैं तो न केवल एक व्यक्ति को संसार देखने लायक बनाते हैं ,एक परिवार को रोटी देते हैं,समाज से एक भिखारी कम करते हैं और देश को दृष्टि देते हैं   इस अमूल्य निधि को मृत शरीर के साथ जलाने का कोई लाभ नहीं आज सभ्य देश और समाज इस बात को पूर्ण रूप से आत्मसात कर चुके हैं कि नेत्रदान न केवल हमारा नैतिक उत्तरदायित्व होना चाहिए अपितु नियमानुसार भी अनिवार्य होना चाहिएI या यूं कहें कि

                                               " जो सबकी हिफाजत करती हैं ,अब उनकी हिफाजत लाजिम है 
                                                       संभल के रहना राहों में आँखों के लुटेरे बैठे हैं "

जो लोग कहते हैं कि नेत्रदान से अंग भंग होता है और मृतक को स्वर्ग की प्राप्ति नहीं होती , मैं कहता हूँ कि ऐसे लोग आँख से नहीं जेहन से अंधे हैं  I यह समस्या केवल इसी तरीके से सुलझाई जा सकती है क्योंकि :

                                                     " न किसी हमसफ़र से न हमनशीं से निकलेगा 
                                                            हमारे पैर का कांटा हमीं  से निकलेगा "

अत: आवश्यक है कि युवा पीढ़ी यह व्रत ले कि हम नेत्रदान करेंगे और अपने बुजुर्गों को इसके लिए तैयार करे कि यदि दोनों मिलकर यह काम करें तो कदाचित हमारे देश में कोई भी ओव्यक्ति नेत्रहीन न हो I  मैं तो कहता हूँ कि जिस प्रकार सुभाष चन्द्र बोस ने आह्वान किया था  "तुम मुझे खून दो मैं तुम्हे आज़ादी दूंगा " मैं आप सबका आह्वान करता हूँ कि तुम मुझे नेत्र दो मैं तुम्हे खुशहाल राष्ट्र दूंगा I   और यदि हम सब इस आन्दोलन में भाग लें तो मुझे पूर्ण विश्वास है कि चारों और से वैसी ही आवाजें सुनाई देंगी कि मैं तुम्हें नेत्र दूंगा ----मैं तुम्हे नेत्र दूंगा --मैं तुम्हे नेत्र दूंगा 

अंत में केवल इतना ही कहना चाहूँगा कि यदि बिथोविन को नेत्र मिले होते तो संगीत और मधुर होता ,यदि जॉन मिल्टन को नेत्रदान मिला होता तो कविता और रसमयी होती,सूरदास को नेत्रदान मिला होता तो कृष्ण की बाल लीलाएं और सुंदर होतीं और यदि धृत राष्ट्र को नेत्र दान मिला होता तो कदाचित उसकी आँखों  में लज्जा आ जाती और महाभारत टल जाता और इतना बड़ा नरसंहार न होता I  अत: आओ हम प्रयास करें कि प्रत्येक दृष्टिहीन व्यक्ति  को दृष्टि मिले  यदि हम सब नेत्रदान करें तो शायद जीवन भर हम उस व्यक्ति  के माध्यम से स्वयं की आखों में कभी नहीं गिरेंगे और हम अपननी आखों से हमेशा विश्व को देखते रहेंगे



आपका
लियो पीयूष बत्रा

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