दान से पुण्य कोई कार्य नहीं होता। दान मनुष्य की उदारता का परिचय देता है, । राजा हरिश्चन्द्र को उनकी दानवीरता के लिए ही जाना जाता है। राजा हरिश्चन्द्र ने मानवता को जो रास्ता दिखाया आज उस पर चलकर तमाम लोग समाज एवं मानव की सेवा में जुटे हुए हैं। देहदान के पवित्र संकल्प द्वारा दूसरों को जीवन देने का जज्बा विरले लोगों में ही देखने को मिलता है। चूँकि मनुष्य के देहान्त बाद की परिस्थितियां मानवीय हाथ में नहीं होती, अतः विभिन्न धर्मों में इसे अलग-अलग रूप में व्याख्यायित किया गया है। धर्मों की परिभाषा से परे एक मानव धर्म भी है जो सिखाता है कि जिन्दा होकर किसी व्यक्ति के काम आये तो उत्तम है और यदि मृत्यु के बाद भी आप किसी के काम आये तो अतिउत्तम है।
मध्यप्रदेश के छिंदवाडा जिले में एक ऐसा परिवार है जिसने लोगों को नेत्रदान अथवा रक्तदान नहीं बल्कि देहदान के लिए जागृत करने का अभियान छेड़ा है।
छिंदवाडा के बडकुही ग्राम की डेहरिया दम्पति मरने के बाद भी अपनी सेवाएं समाज के लिए देना चाहता है। इसलिए डेहरिया दम्पति ने देहदान का संकल्प लिया है। वे चाहते हैं कि समाज के अन्य लोग भी देहदान करें ताकि उनकी देह का इस्तेमाल चिकित्सा विज्ञान में नई खोजों के लिए किया जा सके।उन्होंने अपनी इस हार्दिक इच्छा को लायंस क्लब परासिया के समक्ष रखी ,फिर लायंस क्लब के पदाधिकारियों के साथ इसकी कानूनी प्रक्रिया पूरी की और अनुविभागीय अधिकारी SDM श्री दारासिंह ठाकरे के समक्ष देहदान करने करने की सपथ ली और इसकी घोषणा की !
जैसा की ज्ञात हो की लायंस क्लब परासिया चांदामेटा 323C विगत २२ वर्षो से अन्धतव निवारारण के लिए युद्ध स्तर पर काम कर रही है ! और नेत्रदान करवाने के लिए लायंस क्लब परासिया का नाम पुरे भारत वर्ष में सम्मान के साथ लिया जाता है .लायंस क्लब परासिया जिले में हमेशा समाज के हित में कुछ नया एवं एतिहासिक कार्य कर,जिले एवं प्रदेश का नाम रोशन करता आ रहा है , चाहे १ भव्य नेत्र चिकित्सालय की शुरुआत कर उसे सफलता पूर्वक चलाना हो , या नेत्रदान के पश्चात् उन नेत्रों का स्थानीय जरूरतमंदो को ही उसका प्रत्यारोपण कर , नेत्र प्रत्यारोपण जैसे महान कार्य की एतिहासिक शुरुआत करना हो , समाज सेवा के हर क्षेत्र में लायंस क्लब अग्रणी रही है ! इसी श्रंखला में लायंस क्लब के १ सदस्य लायन हेमंत जैन ने भी इसके पूर्व लायंस क्लब के शपथ ग्रहण समारोह में अपने देहदान की घोषणा की थी , इनसे प्रेरित डेहरिया दम्पति ने भी अपनी इच्छा जाहिर की !वस्तुतः आज सबसे ज्यादा जरूरत युवा पीढ़ी को देहदान व नेत्रदान जैसे संकल्पबद्ध अभियान से जोड़ने की है। हिन्दुस्तान में मौजूद 1 करोड 20 लाख नेत्रहीनों को नेत्र ज्योति प्रदान करने एवं अन्धता निवारण के लिए नेत्रदान करना बहुत जरूरी है। इसी परम्परा में भारतवर्ष में तमाम लोग नेत्रदान-देहदान की ओर प्रवृत्त हो रहे हैं। इन्सान भी मृत्यु के बाद 2 नेत्रहीनों को नेत्रज्योति, 14 लोगो को अस्थियाँ व हजारों मेडिकल छात्रों को चिकित्सा शिक्षा दे सकता है। दान की हुई आँखें तीन पीढ़ी तक काम आती हैं।
किसी कवि ने कहा है-
हाथी के दाँत से खिलौने बने भाँति-भाँति
बकरी की खाल भी पानी भर लाई
मगर इंसान की खाल किसी काम न आई !!
वैसे नेत्रदान, किडनीदान या अन्य अंगों के दान को लेकर हमारे समाज में जितनी अज्ञानता मौजूद है, वह समझ से परे है। लोग इस पहलू से परिचित नहीं है कि किस तरह अंगदान या देहदान के बाद उनका प्रयोग होता है। यह भी बहुत कम लोग जानते हैं कि भारत में हर साल लाख लोग दिल, आंत और लीवर की ऐसी तकलीफों से मरते हैं, जिन्हें अंग प्रत्यारोपण से मिटाया जा सकता है।लेकिन इक्कीसवीं सदी में भी अज्ञान और अंधश्रद्धा का ऐसा आलम है कि मरने के बाद भी हम अपने अंगों और शरीर का मोह छोड़ने के लिए तैयार नहीं।
लोगों की धार्मिक मान्यताएं और परम्पराएं मृत्यु के बाद 'जीवन' की बात करती हैं, जिसका कोई सांइटिफिक सबूत मौजूद नहीं है। इतना तो वहां भी तय है कि यह शरीर यहीं नष्ट हो जाता है, चाहे अंतिम संस्कार का तरीका कुछ भी हो। ऐसे में मृत्यु के बाद जीवन का इससे शानदार तरीका क्या हो सकता है कि हम अपने शरीर को मिट्टी में मिलने या राख होने से बचाएं और दूसरों की जिंदगी को भरपूर बना दें?
इस बात को नहीं भूलना चाहिए कि मरने के बाद भी कई लोगों को जिंदगी की सौगात दी जा सकती है और अंगदान से मृत शरीर में कोई विरूपता नहीं आती। अगर इससे भी आगे बढ़कर देहदान किया जाए, तो मेडिकल साइंस के विकास में मदद मिलती है, जो लाखों-करोड़ों लोगों को सुख दे सकता है
आपका